पार्षद से CM तक का किया था सफर....
नई दिल्ली। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा की आज 16वीं पुण्यतिथि है। उनका निधन 30 जून, 2007 को सड़क दुर्घटना के चलते राजस्थान में हुआ था। साहिब सिंह वर्मा की छवि एक जाट नेता के तौर पर आज भी लोगों में बरकरार है।
उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में साल 1996 से 1998 तक लोगों की सेवा की और 13वीं लोकसभा में जीतकर बतौर सांसद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय श्रम मंत्री के रूप में काम किया।
आज हम आपको साहिब सिंह वर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर उनके राजनीतिक सफर के बारे में बता रहे हैं, जिसमें उन्होंने कई उतार-चढ़ाव के बावजूद खुद को दिल्ली की सत्ता पर काबिज किया।
प्रोफेसर की सलाह पर नाम के पीछे लिखा 'वर्मा'
साहिब सिंह का जन्म 15 मार्च 1943 को दिल्ली के मुंडका गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके नाम के पीछे वर्मा लगाने की भी एक दिलचस्प कहानी है। बताया जाता है कि साहिब सिंह ने एएमयू से लाइब्रेरी साइंस की पढ़ाई की।
यहीं दाखिले के वक्त एक प्रोफेसर ने उन्हें सलाह दी की वह अपने नाम के पीछे वर्मा लगा लें, क्योंकि उन दिनों विश्वविद्यालय में जाटों को लेकर कई पूर्वाग्रह था। पढ़ाई कर लौटे साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली नगर निगम की लाइब्रेरी में काम किया, क्योंकि उन दिनों दिल्ली नगर निगम में संघ का काफी वर्चस्व था और वह खुद भी एक स्वयंसेवक थे।
निकाय चुनाव से राजनीति में रखा कदम
इमरजेंसी के बाद साल 1977 में हुए दिल्ली नगर निगम के चुनाव में पहली बार पार्षद के रूप में जीत दर्ज कर अपना राजनीति में पर्दापण किया। वह केशवपुरम वार्ड से पार्षद से चुने गए थे। अस्सी में हुआ चुनाव में उन्होंने फिर से भाजपा प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज की थी। इसके बाद संगठन में उनका कद काफी बढ़ा था।
इसके बाद उन्होंने साल 1993 में भाजपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत दर्ज की और साहिब सिंह वर्मा को मदन लाल खुराना की सरकार में शिक्षा और विकास मंत्रालय की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी। जहां उन्होंने कई अच्छे काम किए, जिससे उन्होंने भाजपा के कई नेताओं के मन में अपनी अच्छी छवि स्थापित की थी।
मदनलाल खुराना का इस्तीफा
वहीं, साल 1996 में जब भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे लाल कृष्ण आडवाणी के बाद इस्तीफे के बाद दबाव में आकर मदनलाल खुराना को भी इस्तीफा देना पड़ा था।
इसके बाद भाजपा दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की कमान देने के लिए तेज तर्रार प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद सुषमा स्वराज और दूसरे डॉ. हर्षवर्धन के नाम पर चर्चा कर रहे थे और केंद्रीय कमान ने 23 फरवरी को विधायकों की एक बैठक बुलाई थी, जहां पूरा नजारा बदला, क्योंकि 49 में से ज्यादातर विधायकों ने साहिब सिंह वर्मा के नाम पर अपनी सहमति जाहिर की थी। इसके बाद आलाकमान को विधायकों के दबाव में साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री चुना गया।
प्याज की कीमतों ने छीनी साहिब सिंह की कुर्सी
साहिब सिंह ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ढाई साल तक सीएम के रूप में काम किया, लेकिन चुनाव से ऐन 50 दिन पहले 1998 में प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
इसके बाद संगठन की ओर से दिल्ली की कमान तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को दे दी, लेकिन सुषमा संगठन के अपेक्षा प्रदर्शन नहीं कर सकीं और भाजपा को दिल्ली की जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया। अभी दिल्ली में भाजपा अब तक अपना वनवास भोग रही है।
सीएम पद से इस्तीफा देने के बाद तुरंत खाली किया सरकारी आवास
साहिब सिंह वर्मा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के तुरंत बाद अपने सरकारी आवास को खाली कर दिया और वह डीटीसी की बस में बैठकर पूरे परिवार के साथ अपने गांव मुंडका चले गए।
मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद वह साल 1998 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़े। इसके बाद उन्होंने साल 1999 में 2 लाख से ज्यादा जीत हासिल की और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वह केंद्रीय श्रम मंत्री के रूप में शपथ ली, लेकिन साल 2004 में बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट से कांग्रेस के सज्जन कुमार ने उन्हें सवा दो लाख के बड़े अंतर से हरा दिया।
इसके बाद वह संगठन में सक्रिय हो गए, जिस समय उनका निधन हुआ तब साहिब सिंह वर्मा बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे।